Thursday, March 29, 2007

रिश्तों की डोर




हम सोचते कुछ हैं और होता कुछ और है। शायद यहीं है ज़िंदगी और शायद यहीं है आखिरी सच भी। रिश्तों को कहां तक समेटा जा सकता है। मेरे ख्याल से तो रिश्तों को समेटा ही नहीं जा सकता। ये वों धागे हैं जो बस बड़ना जानते हैं, और धीरे धीरे इतना बड़ जाते हैं कि इन्हें बांधने की कोई जगह नहीं मिलती। फिर ये उलझने लगते हैं और धीरे धीरे इनमें गांठे पड़ने लगती हैं और जब मुझ जैसा कोई दीवाना इन्हें सुलझाने की कोशिश करता है तो या इनमें उलझकर अपनी अंगुलियां ही कटा लेता हैं या ये खुद की टूटने और बिखरने लगते हैं। शायद इसीलिए हम किसी भी रिश्तें को बड़ा करने, उसे पिरोने से पहले कई बार सोचते हैं। जिंदगी में अगर कोई ये कहें कि उसने कोई रिश्ता नहीं जीया, तो ये गलत होगा। फिर ज़रुरी नहीं की उसे कोई मुकम्मल जहां ही मिले । लेकिन एक ऐसा भी मुकाम आता है जब धीरे धीरे इसके मज़बूत धागे घनेरे पेड़ की तरह फलने-फूलने लगते हैं और इन्हें बड़ता देख मन और भी खुश होता है , ये सोचकर कि ये सुंदर धागे जिन्हें इस खुबसूरती से पिरोया जा रहा है कितनी मज़बूती से बांधे हुए हैं। वो बंधन कितना अटूट लगने लगता है। फिर ये धागे और बड़ते हैं और बढ़ते बढ़ते इतना फैल जाते हैं कि अपनी ही अंगुलिओं में उलझने लगते हैं। वो अपनी ही मिट्टी में अपने ही हाथों बोया हुआ पेड़ अपनी ही लताओं में उलझने लगता है। इन्हें बिगड़ता देख लाख बांधने की कोशिश की जाती है, समेटने के लिए इनके गुंजलों को हाथ से कई बार सीधा किया जाता है। लेकिन तबतक इनका कद इतना बढ़ चुका होता है कि इनकी गुंजले गांठें बनने लगती हैं। समझ से बाहर होते इन गुंजलों को सुलझाने का बस एक ही तरीका रह जाता है। इन्हें और ना खींचा जाए। छोड़ दिया जाए। क्योंकि इनमें पड़ी गांठ अगर गलत खिंच गई तो ये टूट जाएंगे और दोबारा फिर कभी नहीं जुड़ सकेंगे। इसलिए इन्हें अलग करने का यहीं रास्ता है। इन्हें बस यहीं पर छोड़ दिया जाए। शायद कोई मंद बयार इनमें पड़ी गुंजलों को उड़ा ले जाए। शायद ये खुद-ब-खुद सुलझ जाएं।
शैली श्रीवास्तव

No comments: