Friday, September 14, 2007

कीड़े को लगा कीड़ा

मांसाहारी और मैं...जी मैं तो पूरी की पूरी शाकाहारी हूं। हां, कभी कभी अंडा और मछ्ली खा लेती हूं। लेकिन इसे आप मांसाहार समझने की भूल कदापी ना करें। क्योंकि जो इसे मांसाहार कहेंगे उनसे मेरा झगड़ा हो जाएगा। भई आप क्या दही नहीं खाते, उसमे भी तो कीड़े होते हैं, आई मीन बैक्टिरिया। बेचारे ज़िंदा ही होते है जब आप उन्हें बड़े स्वाद से निगल जाते हैं। अब ये तर्क मत दीजिए की आप उन्हें देख नहीं पाते सो निगल जाते हैं। और उसका क्या जो शाक-पात आप खाते हैं, उनमें भी तो जीव है।

खैर, मुझे पता है आपके पास भी कई तर्क होंके लेकिन इसमें तो घंटों बीत सकते हैं। वैसे मेरी प्योर वेजीटेरियन मम्मी इस तर्क से बिल्कुल परे हैं। जब ये बहस सुनी तो तपाक से बोली, "दही का कीड़ा अच्छा कीड़ा होता है। उसे खाने से इंसान को नुकसान नहीं फायदा होता है। और रही शाक-पात की बात तो उनका जीव तो बना ही खाने के लिए है। ये सभी अच्छे कीड़े हैं, इंसान को ताकत देते हैं और ताकत से ही वो अपने सारे काम आसानी से कर पाते हैं" ।
अरे वाह....ये भी कोई बात हुई भला, ये अच्छा कीड़ा और गंदा कीड़ा कहां से आ गया। फायदेमंद कीड़ा, वाह क्या तर्क है। लेकिन उनसे बहस भला कौन करे, जो कह दिया सो कह दिया।

कल उस अच्छे कीड़े की बात पर हंसी आती थी, और मेरी तरह आप भी ज़रूर मुसकुरा रहे होंगे। लेकिन आज सच लगती है। हां, संदर्भ ज़रूर बदल गया है। लेकिन बात वही है। अच्छा कीड़ा - गंदा कीड़ा....एक ताकत देता है तो दूसरा कमज़ोर बनाता है। एक जोश है, उमंग है तो दूसरा थकान और बैचेनी है। एक सही है तो दूसरा गलत। अच्छा कीड़ा - गंदा कीड़ा.........

मगर क्या हो जब कीड़े को भी कीड़ा लग जाए? बात अजीब ज़रूर है, लेकिन है पते की। कल ही मेरे दादाजी गांव से लौटे। 85 साल के हैं, आंखे कमज़ोर है सो टीवी देखते नहीं सुनते हैं और खबरों की सारी जानकारी रखते हैं। आज खटाखट खबरों के ज़माने में भी दूरदर्शन ही पसंद है। कहते हैं, खबरें दिखाते हैं दूरदर्शन वाले। बाकी सब दिखाते नहीं बनाते है।
अब मै ठहरी इसी बिरादरी की, सो प्रोटेस्ट किया, 'दादाजी ऐसी बात नहीं है, सभी चैनल एक से नहीं। सबका अलग एजेंडा है'। तो बोले, हां एजेंडा अलग है लेकिन बात तो वही है। एक कहता है- ख़बर हमारी, फैसला आपका और उसकी खबर देखकर लोग इतने भड़क जाते हैं कि आंखमूंद कर देश में दंगे भड़काने का फैसला ले लेते हैं। तो दूसरा देश बदलने के लिए चैनल बदलने को कहता है और ब्रैकिंग न्यूज़ कहकर दिखाता क्या है कि पति-पत्नी के लिए सैक्स कितना ज़रूरी है। और तुम्हारा वो तेज़ चैनल, वाकयी में बड़ा तेज़ है, खबरें सबसे पहले उसी के पास पहुंचती है। ऐश्वर्या राय ने कहां उन्हें बच्चे बहुत पसंद हैं। बस ये तेज़ी से समझ गए कि वो मां बनने वाली हैं। शुक्र है लोगों से वोटिंग नहीं करायी कि छोटे बी के घर लड़का होगा या लड़की। सरौता वाले बाबा की खबर देखी थी इनके चैनल पर। थोड़े दिनों बाद खबर आई कि भगदड़ मच गई है वहां। कई लोग मारे गए। बेचारे वो आस्थावान जिन्होंने इनके चैनल से सुना की कोई बाबा आंखों का सफल इलाज कर रहे हैं। पहुंच गए पूरे दलबल के साथ। और आंखों के बदले अपनी जान गवानी पड़ी।

एक कहता है कि वो हर कीमत पर ख़बर दिखाएगा लेकिन जब चैनल खोलो तो स्डूडियो में दो मेहमान आपस में बुरी तरह भिड़ते नज़र आते हैं। एंकर समझ जाता है कि झगड़ा हो रहा है सो इसे पूरा फुटेज दो, यहीं वो समय है जब लोग चैनल बदलते हुए यहां रुक जाएंगे। फिर रोने की लंबी ब्रीद, कैमरे का फोकस आखों के ठीक पास। जब एक पार्टी थोड़ा चुप होने लगती है तो एंकर कहता है, बोलिए शालू जी बोलिए, आखिर क्यों आपका पति आपको प्यार नहीं करता। आप यहां जी भर के अपनी बात रख सकती हैं। अपने पति की हर बात हमें बता सकती हैं। हमारे पास सामाजिक कार्यकर्ता है, महिला विषय की जानकार है और कानून के धुरंदर हैं। आपको हम न्याय दिलाए बिना कोई खबर नहीं दिखाएंगे। क्यों आपका पति आपको तलाक देना चाहता है। हम कराएंगे आपका सेटेलमेंट। बोलिए शालू जी बोलिए। शालू जी बेचारी क्या करें, रोना छूटते ही बोलती बंद। समझदार एंकर फिर समझ जाता है, माहौल अभी थोड़ा ठंडा पड़ रहा है। ब्रेक में थोड़ा शालू जी को समझा दूंगा तो काम बन जाएगा।

और वो क्या कहते है उसे बाबाओं का प्रोगराम, काल-कपाल-महाकाल। गांव में उस कार्यक्रम को देखने के लिए मजमा लग जाता है। विज्ञान पर आस्था जो भारी पड़ जाती है। गांव वाले ठहरे आस्थावान। बाबाओं की बात डॉक्टर से पहले समझ जाते हैं। इस कार्यक्रम से तो बाबाओं का बाज़ार ही चल निकला है। टीवी वाले बाबाओं को देखकर गांव के बाबा ने भी अपना हुलिया बदल लिया है। अब अपने प्रमोशन में कह रहे हैं कि, हमारे यहां टीवी पर दिखाए गए बाबा जैसा इलाज़ होता है। सारी दुनिया के सताए यहां आएं। और जनता ठहरी आस्था में विश्वास रखने वाली और अबतो टीवी का सर्टीफिकेट भी मिल गया है।

दादाजी बिना रुके बोले जा रहे थे और मैं शब्दहीन खड़ी मन में उस कीड़े की अलग अलग आकृतियां बना रही थी। बोले, "कीड़ा देखा है तुमने कभी, काट ले तो जख्म कर देता है। और अगर ज़हरीला हो तो ज़हर सारे शरीर को गलाने लगता है। लेकिन आज उस कीड़े को ही कीड़ा लग गया है। मीडिया एक कीड़ा ही तो है। सच का कीड़ा, जो काटता है तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है। सोच का कीड़ा, जो अपने दांत भी गड़ा देता है तो इंसान सही और गलत को समझने लगता है। जोश का कीड़ा, जो कुलबुलाता है तो इंसान अपने अधिकारों के लिए भगवान से भी लड़ जाता है। ताकत का कीड़ा, जो गूंगे की आवाज़ है, अंधे की आंखे और लंगड़े के पैर। लेकिन आज इस कीड़े को भी कीड़ा लग गया है। जो सच तो दिखाता है लेकिन दूध ज़हर बन जाता है। सोचने को मजबूर तो करता है लेकिन लोगों की सोच दंगा भड़का देती है। जोश में आकर लोग खुद पर मिट्टी का तेल तो छिड़क लेते हैं लेकिन कैमरा सामने से हटते ही, उन्हें कोई पतली गली नज़र आ जाती है। ताकत तो देता है लेकिन जेल में पड़े उन नेताओं को जो वहीं से अपना धंधा चला रहे हैं और उनका बाल भी बांका नहीं हो पाता। बबलू श्रीवास्तव हो या अबु सलेम मीडिया में आना ही इनकी ताकत है। पचास करोड़ का इनाम रखने वाले यूपी के मंत्री हाजी याकूब कुरैशी को किसने ताकत दी? क्या आप समझते हैं मीक्का के किस ने राखी सावंत को पॉपुलर बनाया?"

इतना सब सुनने के बाद, उस कीड़े की एक आकृति बनी मेरे मन में। लेकिन कीड़े को कौन सा कीड़ा लगा भला। बड़ा ही अजीब कीड़ा है जो कीड़े को ही लग गया। दादाजी शायद समझ गए थे मेरी उलझन बोले, " इसे टीआरपी का कीड़ा कहते हैं। लाइलाज नहीं है। लेकिन अगर एक बार लग जाए तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। फिल्मवालों को लगता है तो हिरोइनों के कपड़े कम से गायब हो जाते हैं। सास-बहू वाले चैनलों को लग जाए तो एक की बजाए चार चार शादियां करवाने लगते हैं। मौत के बाद कई बार री-एंट्री और बीच बीच में फिल्मी गानों पर नाचती फेवरेट जोड़ियों का तड़का। नेताओं को लग जाए तो कैमरा ऑन होते ही नारे चालू और कभी कभी तो एक दूसरे पर कुर्सी, माइक, और टेबल तक बरसाने लगते हैं। न्यूज़ चैनल वालों को लगे तो स्टिंग ऑपरेशनों के ज़रिए सच का झूठ और झूठ का सच दिखाने लगते हैं। और तो और अगर इस सो कॉल्ड "भोली भाली" जनता को ये कीड़ा लग जाए को शहर के शहर तबाह हो जाते हैं। आसमान से आग बरसने लगती है। कहीं पत्थर फैंके जाते हैं को कहीं लाठियां भांजी जाती हैं"।

मुझे आंखे झुकाए देख दादाजी बड़े प्यार से बोले घबराती क्यों हों, कीड़े को कीड़ा ही तो लगा है। कुछ समय बाद शायद उस कीड़े को कोई अच्छा कीड़ा लग जाए। वो बात सुनी है ना तुमने अच्छा कीड़ा- गंदा कीड़ा।



Friday, September 7, 2007

दुम दबा के भागी बिल्ली

भागते-भागते अचानक बिल्ली की नज़र मुझपर पड़ी, पहले आंखों से आंखें मिली फिर वहीं रुक गई। साफ सुथरे कपड़े, घुटनों तक आधी कटी हुई पेंट, नॉट वाली टी शर्ट और कंधो तक हबीब से हज़ारों देकर कटाए बेबी कट बाल। देखकर समझ गई, ज़रूर ये कोई मीडिया पर्सेनेलेटी है। इससे डरने की बात नहीं। अब ये मुझे नहीं पहचानेगी। लेकिन अगर इसे मेरी तस्वीर याद रही तो? इसे देखकर तो ऐसा नहीं लगता की इसे मेरी तस्वीर याद है। और फिर इसे इतनी फुर्सत भी कहां जो ये बीती बातों को याद रखे। इसे तो जल्दी है ये देखने की कि इस बार तरुण तहलियानी के शो में कौन कौन से सितारे आए हैं। अरे, वहां इसकी ओबी वैन जो फिट है, लाइव इवेंट है। सुना है, चैनल को कई बड़े स्पोंसर भी मिले हैं। हर बुलेटिन में फैशन का सीधा हाल सुनाएंगे। क्या पता किसी मॉडल का कपड़ा सरक जाए तो कवरेज में चार-चांद लग जाएगा। बाद में भले ही मॉज़ेक करके चलाते रहें, लेकिन पहली बार तो लाइव फुटेज चल ही जाएगा। इसी बहाने कम से कम इस बार की टीआरपी की टेंशन से तो छुट्टी मिलेगी।


सहीं है, इसके भी दिन हैं। यहां तो दाने दाने के लिए रोज़ मरना पड़ता है। शहर से सारे चूहे ही गायब हो गए हैं। पता नहीं उन्हें ज़मीन निगल गई, या आसमान चट कर गया। कल ही देहात से आया एक चूहा हाथ लगा लेकिन पूरा सड़ा हुआ। हैजा था उसे, अंदर का सारा खून सूख गया था। क्या करता जिस घर में वो रहता था वहां की हालत ही कुछ ऐसी थी। पूरा घर हैजे ने खा लिया। बाढ़ ने घर को लील लिया। किसी तरह पुलिया पार कर वहां से निकला तो हैजे और बिमारियों ने घेर लिया। बेचारा मिन्नते कर रहा था कि मैं उसे मार ही डालू। बता रहा था कि आधे शहर का यहीं हाल है। बिहार, असम के दर्जनों ज़िले बिमारी और भुखमरी से तड़प रहे हैं। सरकार ने आपात काल की घोषणा भी कर दी है। उसकी दर्द भरी कहानी सुनकर मुझे ही रोना आ गया। लेकिन अब सोचती हूं, कहीं वो मुझे गच्चा तो नहीं दे गया। जब इतनी बड़ी त्रासदी हो रही है तो उसका भी लाइव दिखाना चाहिए था इन न्यूज़ चैनल वालों को। वहां की कोई खबर तो सुनने में नहीं आई। क्या पता, वहां से लाइव हो ही नहीं सकता हो, या फिर ये भी हो सकता है कि हैजे के बीच जाकर कौन रिपोर्टर अपनी जान जोखिम में डालना चाहता हो। इनसब विषयों के स्पोंसर भी तो नहीं होते और ना ही कुछ मसाला। फैशन और गरीबी में कोई तुलना हो सकती है भला। फैशन फैशन है और गरीबी गरीबी। विजय माल्या ने ऐसे ही लाइफ स्टाइल चैनल पर करोड़ों रुपए इन्वेस्ट नहीं किए। मुनाफा किसे प्यारा नहीं। बातें अलग हैं और बिजनेस अलग।


पर मुझे क्या इन बातों से, मुझे तो रोज़ कुंआ खोदना है और रोज़ पानी निकालना है। क्या करूं आम बिल्ली जो ठहरी। अभी कल ही की तो बात है, ज़ोरो की भूख लगी थी, दो दिन से एक भी चूहा हाथ नहीं लगा था तो सोचा मच्छी बाज़ार की तरफ ही चली जाउं। शायद वहां कुछ मिले। अभी आधा दूर ही चली थी कि एक ज़ोर का पत्थर दनदनाता हुआ आया और सीधे मेरे मुंह पर लगा। एकदम झन्ना गई। चारों तरफ आग और धुंए का अंबार बिखरा पड़ा था। मुझे लगा मैं कहीं तालीबान तो नहीं पहुंच गई जहां अचानक की बम फटते रहते हैं। पत्थर की चोट को अभी सहला ही रही थी कि कहीं से आवाज़ आई कि यहीं है वो जिसकी वजह से इस ट्रक ने अपना आपा खोया और एक आदमी कुचल गया। मैने पीछे मुड़कर देखा तो पकड़ो पकड़ो की आवाज़ चारों तरफ से मेरे करीब आने लगी। एक पल को तो समझ ही नहीं पाई की ये क्या हो रहा है। लेकिन जब भीड़ को अपनी तरफ आते देखा तो ऐसा घबरायी की आव-देखा ना ताव सरपट दौड़ लगा दी। जान हथेली पर रख भागती रही, भागती रही। किसी तरह एक डब्बे में छुपने की जगह मिली। कुछ देर वहीं बैठी रही। फिर जब चारों तरफ से कोई आवाज़ सुनायी नहीं दी तो बाहर निकली। हाय, क्या सच में मेरी वजह से वो आदमी ट्रक के नीचे आ गया। लेकिन मैं तो सड़के किनारे पटरी पर ही चल रही थी। हाय, मैं तो खुद अभागी हूं, मैं भला कैसे एक आदमी की मौत का कारण बनी। अभी इसी उधेड़बुन में ही लगी थी कि देखती क्या हूं पास की ही दुकान में लगे टीवी पर मेरी तस्वीरें दिखाई जा रही हैं। मैं एकदम धबरा गई। पास जाके सुनने की कोशिश की तो हल्की हल्की आवाज़ में सुनायी दिया, देखिए सिर्फ हमारे पास हैं उस कातिल बिल्ली की तस्वीरें जिसने लील ली एक व्यक्ति की जान। ये एक्सक्लूसिव फुटेज आप केवल हमारे चैनल पर ही देख सकते हैं। सबसे तेज़। बिल्ली तो मौके से फरार है लेकिन उसका हुलिया केवल हमारे पास है। जिसे भी ये बिल्ली नज़र आए, सीधे हमारे स्टूडियों का नंबर लगाएं। और अगर आप चाहें तो एमएमएस कर हमें उसकी और तस्वीरें भी भेज सकते हैं। हमारा आज का सवाल भी इसी से जुड़ा है- आवारा घूमने वाले इन जानवरों के साथ क्या करना चाहिए- (ए) इन्हें एक साथ खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए, (बी) इन्हें जानवरों की संस्था पेटा को सौंप देना चाहिए और (सी) संसद में इस सवाल को उठाना चाहिए। और देखिए चंद ही मिनटों में हमारी खबर का असर, सरकार ने अब आवारा घूमने वाले जानवरों को पकड़ने वालों को इनाम देने की घोषणा की है। यानी जो इन जानवरों को पकड़कर एमसीडी को सौंपेगा उसे सरकार की तरफ से इनाम दिया जाएगा। ये है सबसे तेज़ चैनल का असर। जारी है खबर का असर, ब्रेक के बाद भी।


भला हो इन मीडिया वालों का, वो दिन है और आज का दिन, मुआ भाग भाग के मेरे पैरों ने जवाब दे दिया। लेकिन मुद्दई किसी के हाथ नहीं लगी हूं। वैसे अब डर भी नहीं लगता। क्योंकि ये लोग बड़े भुलक्कड भी तो होते हैं। एक दिन जिस खबर को बड़ा-चढ़ा के दिखाते हैं अगले ही दिन उसे भूल जाते हैं। उन्हें हर पल नई और चटपटी खबरें चाहिए। चलों इसमें मेरा ही फायदा है। अबतो ये सामने से भी निकल जाएं पहचानते नहीं है। ये वहीं तो रिपोर्टर है जिसने मेरी जैसी किसी बिल्ली की फोटो चैनल पर दिखाई थी। आज देखों, देखकर भी इग्नोर कर रही है। अब उसके पास बड़ा मुद्दा जो है। फैशन शो के लिए जा रही है, अब ये मुझे क्या पहचानेगी। और अगर मैं ये कह दूं कि मेरे पास मॉडल्स का अंदर का हाल है जहां तक इसका कैमरा नहीं पहुंचा तो ये मेरे ही पीछे लग लेगी। और अगर ये कह दूं कि कैट वॉक करती शिल्पा शेट्टी ने मुझी से रैंप पर चलने के टिप्स लिए, तो शायद मेरा एस्कक्लूसिव इंटरव्यू भी ले डाले।


पर मुझे क्या पड़ी है इनके पचड़े में पड़ने की। मुझे तो अभी अपने पेट की आग बुझानी है। दो दिन से एक दाना भी नहीं गया मुंह मेँ। इससे पहले कोई नई मुसीबत आए कुछ जुगाड़ करू चलके। क्या करूं, आम बिल्ली जो ठहरी।

Thursday, September 6, 2007

टीवी चैनलों से बरसती आग

नमस्कार मैं हूं क ख ग और हम आपको दिखा रहे हैं वो सीडी जो हमने एक स्टिंग ऑपरेशन करके शूट की है। वो सच जिसे देख आप शर्म से चूर चूर हो जाएंगे। देखिए सिर्फ हमारे चैनल के पास है वो सीडी जिसमें साफ दिखाया गया है कि कैसे एक टीचर अपनी छात्राओं को ब्लेक मेल करके उन्हें वैश्या-वृति में ढकेल रही है। ये ही है वो टीचर जो फ्ला फ्ला स्कूल में पढाती है । सिर्फ हमारे चैनल पर....जाइगा नहीं हम स्टिंग ऑपरेशन में दिखाई गई एक एक चीज़ आपको दिखाएंगे...बिना काट-छांट किए...सिर्फ आप हमारा चैनल देखते रहिए........

ब्रेक पर आप दू्सरा चैनल बदल लेते हैं लेकिन वहां पर भी यही हाल- देखिए ये तस्वीरे मोनिका बेदी की जिन्हें भोपाल जेल परिसर में खींचा गया है। इन्हें देखकर साफ हो जाता है कि मोनिका बेदी की ये तस्वीरें जेल के बाथरूम से खिचीं गई जिसमें मोनिका बेदी को बिना कपड़ों में दिखाया गया है। इन्हें आप सिर्फ हमारे चैनल पर देख सकते हैं।

पूरे परिवार के साथ बैठकर आपके लिए ये देखना मुश्किल हो जाता है और आप दूसरा चैनल बदल लेते हैं। कुछ घंटे बाद किसी चैनल पर खबर आती है कि स्टिंग ऑपरेशन का कुछ इस कदर असर हुआ कि जिस टीचर का स्टिंग ऑपरेशन हुआ उसके स्कूल के बाहर दंगे भड़क गए। लोगों ने आव देखा ना ताव, सच देखा ना झूठ और ना ही पुलिस को मामले की जानकारी दी....सीधे तोड़फोड़ शुरू कर दी। बसें तोड़ी ( जिनका मामले से कोई सरोकार नहीं) पास की दुकाने तोड़ी ( जिनका मामले से कोई लेना-देना नहीं) यहां तक की जब मौके पर पुलिस पहुंची तो उसकी गाड़ी भी फूंक डाली। आनन-फानन में भीड़ स्कूल में घुस गई और उस टीचर को बुरी तरह लात-घूंसों से पीट डाला। अगर पांच मिनट और पुलिस उसे नहीं बचा पाती तो उस दिन उसका मरना तय था। कानून की हर तरफ इस कदर धज्जिया उड़ी लेकिन गुस्साई भीड़ के आगे भला किसकी चलती। पुलिस अगर लोगों को हटाने के लिए लाठी-चार्ज करे तो टीवी चैनलों को एक और हेडलाइन मिल जाए।

आज वो टीचर पुलिस हिरासत में है। चैनल की रिपोर्ट में कई झोल बताए जा रहे हैं , मसलन वो लड़की जो सेक्स वर्कर के तौर पर लाई गई थी, कोई छात्रा नहीं है। टीचर के पास से कोई सबूत नहीं मिले हैं। घर पर जो सीडी मिली वो सभी सिनेमा की हैं। और हैरानी की बात तो ये है कि वो लोग जिन्होंने जमकर तोड़-फोड़ मचाई उनमें से एक भी अपनी शिकायत लिखाने पुलिस के पास नहीं गया। अबतक मामले की कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई है। तो इतना बवाल क्यों मचा। टीचर दोषी है या निर्दोश ये तो अदालत तय करेगी लेकिन उस दिन जो तोड़-फोड़ की गई, जिनका नुकसान हुआ और जो लोग घायल हुए उसका हर्जाना कौन भरेगा। वो चैनल, जो रिपोर्ट दिखाकर अपनी पीठ थपथपा रहा है या फिर वो लोग जो हंगामा करके कहीं किसी ठेके पर बैठे अपनी जांबाज़ी के किस्से सुना रहे हैं या फिर आम जनता जो कान की इतनी कच्ची है कि बिना कुछ देखे समझे बस टूट पड़ती है अपने ही लोगों पर। सवाल ये नहीं कि टीचर कसूरवार है या नहीं बल्कि सवाल ये है कि क्या टीवी चैनल टीआरपी के लिए इतने उतावले हो गए हैं कि बिना मामले की तह तक जाए स्टिंग ऑपरेशन कर रहे हैं। और खबरों का रुख इस तरफ मोड़ रहे हैं जिन्हें देखकर लोग भड़के और अपना आपा खो जाए।

मैं उस जनता पर भी उंगली उठाती हूं कि जो खबर देखकर या खबरों में आने के लिए कानून को हाथों में तोड़ने से कोई परहेज़ नहीं करते। आप कावड़ियों का मामला ही ले लीजिए। किसी ट्रक या बस ने कावड़ियों को कुचल डाला। इसका खामियाज़ा उस पूरे इलाके को भुगतना पड़ा जहां ये वारदात हुई। और पुलिस ने जब दंगा रोकने के लिए सख्ती बरती तो चैनलों की हेडलाइन हुई " पुलिस की हैवानियत "। आखिर जनता का माध्यम मीडिया, कितना जनता का है। मीडिया इस्तेमाल हो रहा है या इस्तेमाल कर रहा है। ये कौन सा माध्यम बन गया है। बताने का या भड़काने का।

Saturday, April 21, 2007

पीपल वाले बाबा

दोपहर के तीन बज रहे थे,जेठ की गर्मी में लू के थपेड़े जब शरीर को छू कर निकलते थे तो मानों सारा शरीर जलन से छिलने लगता था। पसीने से लबलबाए शरीर पर गर्म हवा मानों जख्म पर नमक का काम करती थी। लेकिन हमारे लिए यहीं वो समय था जब हम पीपल वाले बाबा के पास बैठकर घंटों बतियाते रहते थे। बड़ा खास था वो समय हमारे लिए। स्कूल से आने के बाद हमे ना खाने की सुध रहती ना पीने की, बस जल्दी जल्दी बसता एक ओर ढकेला, स्कूल के कपड़े बदले और निकल पड़े पीपल वाले बाबाके घर। कभी गुड्डा गुडिया के तमाशे तो कभी किसी कपड़े को साड़ी की तरह लपेटकर टीचर की नकल उड़ाते। हम तीन लड़कियां और साथ में मेरी सहेली रुची का छोटा भाई जो अपनी उम्र के दोस्तों के साथ कम और हमारे साथ गुड्डा गुडिया खेलना ज्यादा पसंद करता था। हमारे खेल का एक और साथी था जो शांत खड़ा हम बच्चों को बड़े सुकून से निहारता रहता था। पीपल का विशाल पेड़ जिसे अक्सर हम हर खेल का इंपायर बना देते थे। यानी अगर किसी में भी किसी बात पर झगड़ा होता, जैसा की लड़कियों में अक्सर होता है तो हम सीधे उसी से सलाह लेते। पीपल के पत्ते के एक तरफ कोई निशान बनाते और फिर ट़ॉस करते। बारिशों में कभी ये हमारी ढाल बन जाता तो सर्दियों में इससे टूटी डालियों को हम अलाव बनाकर ठंड भगाते। हर मौसम का हमसफर पीपल का ये पेड़ ही पीपल वाले बाबा की सबसे प्यारी निशानी था। उन्हीं ने इसे लगाया था।
पीपल वाले बाबा इसी नाम से बुलाते थे सब उन्हें। सारी गली में लोग उन्हें जानते थे। सुबह सुबह गली के लोग उनके पास आकर धूप-बत्ती से उनकी पूजा किया करते।तीज त्योहारों पर गली-मोहल्ले ही औरतें अपनी मन्नतों के धागे लिए पीपल की परिक्रमा करती और पीपल वाले बाबा का ध्यान कर धूप-दीप से पूजा अर्चना करती। बाबा को गुज़रे सालों गुज़र चुके थे लेकिन उनकी समाधि से लगा पीपल का ये पेड़ उनके हर पल होने का अहसास करता । शायद यहीं वजह थी कि हर सालजिस दिन बाबा ने यहां समाधि ली थी एक बड़े जलसे की तरह मनाया जाता था। दूर दूर से लोग बाबा की समाधि पर मुरादे लिए पहुंचते थे। रात भर भजन-मंडली के लोग किर्तन भजन गाते और एक वहीं दिन होता जब सारा मोहल्ला वहां एकसाथ इक्कठा होता। बाबा की समाधि के पास ही उनका घर था जहां अब मेरीसहेली रुची का घर है। रुची के पापा हमे अकसर पीपल वाले बाबा की कहानियां सुनाया करते। उन्होंने अपने घर में भी एक छोटा सा मंदिर बनाया था जिसमें पीपल
वाले बाबा की एक बड़ी सी तस्वीर लटकी रहती थी। हर शाम वो रोज़ उनकी समाधि पर दीया जलाते थे। तब हम छोटे थे और हमारे लिए ये सब बस एक कहानी जैसा था। रुची के पापा हमें बताते की कैसे बाबा ने समाधि ली । और कैसे सारा मोहल्ला उनके आखिरी समय में आखें बिछाए बैठा रहा। पीपल वाले बाबा का असली नाम शायद ही किसी को याद हो लेकिन उनकी समाधि लेने के बाद लोग उन्हें पीपल वाले बाबा कहकर ही बुलाते थे। मेरे दादाजी के समय के थे पीपल वाले बाबा। लंबा चोड़ा शरीर, बड़ी बड़ी मूछे, तेल से चुपड़े हुए घुंघराले बाल और मुख पर हमेशा एक कांतिमय तेज। दूर दूर से लोग उनके पास अपनी परेशानिया लेकर आता बाबा के पास जैसे हर परेशानी का समाधान पहले से ही रहता । उन दिनों जय गुरू देव नाम से एक पंथ चलता था जो आज भी गांव-देहात में माना जाता है, मेरे दादा जी भी उसे मानते थे और पीपल वाले बाबा भी। मेरे दादा जी बताते है कि एक बार उन्होंने हमारी भी मदद की थी। हमने उस इलाके में ज़मीन ली थी जिसपर किसी ने कब्ज़ा कर लिया था । तब पीपल वाले बाबा ने ही बड़ी मुश्किलों से हमे हमारी ज़मीन वापल दिलायी थी। बाबा एक स्वत्रंता सेनानी थे। स्वतंत्रा संग्राम में उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ जमकर मोर्चा संभाला था और जयहिंद नाम से आज़ादी के मतवालों की एक फौज भी तैयार की थी। संघी विचारधारा के होने के बाद भी वो खुले विचारों के थे । पूरे इलाके में लोग बड़े अदब के साथ उनका नाम लिया करते थे। उस ज़माने में दिल्ली का शक्करपुर इलाका एकदम उजाड़ जंगल था। रेल की पटरी के उस पार मंडावली था और इस पार जहां हम आज रहते हैं शक्कर पुर। बंटवारे से पहले ये पूरा इलाका खेतीहारों का गांव था। खुले मैदानों में गेहूं के खेत लहलहाते थे। चारों तरफ खाली मैदान और कहीं कहीं टीन के छप्पर वाले छोटे छोटे घर। फिर बंटवारे के बाद धीरे धीरे लोग यहां आकर बसने लगे। लहलहाते खेत सिकुड़ने लगे और ईंट-कंकरीट का एक नया जंगल पांव पसारने लगा। वैसे तो इस इलाके में हर प्रांत से लोग आकर बसने लगे लेकिन पहाड़ी और पाक अधिकृत कश्मीर के ज्यादातर शरणार्थियों ने यहीं पनाह ली। धीरे धीरे लोग बड़ते गए और इस मुहल्ले का कुनबा बड़ता गया। लेकिन रोज़ की तरह बाबा के पास आने वाले की लंबी लाइने लगी रहती। फिर एक दिन वो समय भी आया जब बाबा ने कहा कि उनका शरीर अब मुक्ति यात्रा पर जाना चाहता है। और वो समाधि पर बैठना चाहते हैं। लोगों ने बाबा की इस बात का बहुच विरोध किया लेकिन बाबा को उनकी मुक्ति यात्रा से नहीं रोक पाए।


उस दिन सारा मोहल्ला इकट्टा हुआ, पूरी गली को दुल्हन की तरह सजाया गया। बाबा के घर के बाहर जहां उन्होंने समाधि लेने की इच्छा जतायी थी उस जगह को करीबन 10 फीट तक खोदा गया। दिन भर उस जगह को हवन यज्ञ से पवित्र किया गया। फिर अगले दिन सूरज निकलने से पहले बाबा उस गढे में उतर गए और संसारी भर की परेशानियों का चोला बाहर ही छोड़ उस परम तत्व में विलीन होने के लिए समाधि में बैठ गए। सात दिन, चौबीसों घंटे समाधि के बाहर पूरा मोहल्ला बाबा के आखिरी पलों में भजन-कीर्तन और यज्ञ हवन करता रहा। दूर दूर से लोग उनके आखिरी दर्शनों के लिए पहुंचे। आठवे दिन सुबह की वही बेला जब बाबा ने समाधि ली थी , ठीक उसी समय बाबा के प्राणों ने उनके शरीर का त्याग किया और उनते प्राण मुक्ति यात्रा के लिए निकल पड़े। वो पीपल का पेड़ जिसे अपने हाथों से बाबा ने सींचा था उसी तरह शांत खड़ा होकर आत्मा से परमात्मा के मिलन का मूक गवाह बना। आज भी ये मूक है। कुछ नहीं कहता । इसकी लंबी लंबी भुजाए हवाओं से बाते करती हैं लेकिन ये चुप है। बस एक जगह खड़ा होकर सबको देखता रहता है। जैसे बाबा आज भी वहां हो और चुपचाप खड़े रहकर सबकी परेशानिआ सुन रहे हों। आज भी बाबा की समाधि उसी जगह पर है और लोग उसी तरह हर सुबह उनकी समाधि पर माथा टेकने जाते हैं।

Thursday, March 29, 2007

रिश्तों की डोर




हम सोचते कुछ हैं और होता कुछ और है। शायद यहीं है ज़िंदगी और शायद यहीं है आखिरी सच भी। रिश्तों को कहां तक समेटा जा सकता है। मेरे ख्याल से तो रिश्तों को समेटा ही नहीं जा सकता। ये वों धागे हैं जो बस बड़ना जानते हैं, और धीरे धीरे इतना बड़ जाते हैं कि इन्हें बांधने की कोई जगह नहीं मिलती। फिर ये उलझने लगते हैं और धीरे धीरे इनमें गांठे पड़ने लगती हैं और जब मुझ जैसा कोई दीवाना इन्हें सुलझाने की कोशिश करता है तो या इनमें उलझकर अपनी अंगुलियां ही कटा लेता हैं या ये खुद की टूटने और बिखरने लगते हैं। शायद इसीलिए हम किसी भी रिश्तें को बड़ा करने, उसे पिरोने से पहले कई बार सोचते हैं। जिंदगी में अगर कोई ये कहें कि उसने कोई रिश्ता नहीं जीया, तो ये गलत होगा। फिर ज़रुरी नहीं की उसे कोई मुकम्मल जहां ही मिले । लेकिन एक ऐसा भी मुकाम आता है जब धीरे धीरे इसके मज़बूत धागे घनेरे पेड़ की तरह फलने-फूलने लगते हैं और इन्हें बड़ता देख मन और भी खुश होता है , ये सोचकर कि ये सुंदर धागे जिन्हें इस खुबसूरती से पिरोया जा रहा है कितनी मज़बूती से बांधे हुए हैं। वो बंधन कितना अटूट लगने लगता है। फिर ये धागे और बड़ते हैं और बढ़ते बढ़ते इतना फैल जाते हैं कि अपनी ही अंगुलिओं में उलझने लगते हैं। वो अपनी ही मिट्टी में अपने ही हाथों बोया हुआ पेड़ अपनी ही लताओं में उलझने लगता है। इन्हें बिगड़ता देख लाख बांधने की कोशिश की जाती है, समेटने के लिए इनके गुंजलों को हाथ से कई बार सीधा किया जाता है। लेकिन तबतक इनका कद इतना बढ़ चुका होता है कि इनकी गुंजले गांठें बनने लगती हैं। समझ से बाहर होते इन गुंजलों को सुलझाने का बस एक ही तरीका रह जाता है। इन्हें और ना खींचा जाए। छोड़ दिया जाए। क्योंकि इनमें पड़ी गांठ अगर गलत खिंच गई तो ये टूट जाएंगे और दोबारा फिर कभी नहीं जुड़ सकेंगे। इसलिए इन्हें अलग करने का यहीं रास्ता है। इन्हें बस यहीं पर छोड़ दिया जाए। शायद कोई मंद बयार इनमें पड़ी गुंजलों को उड़ा ले जाए। शायद ये खुद-ब-खुद सुलझ जाएं।
शैली श्रीवास्तव

एक पल की ज़िंदगी


एक पल की ज़िंदगी
एक पल की मौत
इस बीच में जो बीता
उसका कैसा मोल


आंखों से गिरती गीली नमीं जब
पलकों से जाकर होंठो पे आए
वो गुज़रे हुए पल
रोशन में नहाए

तुम तक ना पहुंची क्यों आवाज़ मेरी
ना पहुंचे मेरे देखे सपने सजाए
क्या झूठा क्या सच्चा
क्या अपना पराया
वादे ये तुमने कुछ ऐसे निभाए

कहते हो तुम हमसे, बांधा है तुमको
कहते नहीं क्यों, क्या रिश्ते निभाए

एक पल की ज़िंदगी
एक पल की मौत
इस बीच में जो बीता
उसका कैसा मोल

शैली श्रीवास्तव